Saturday, July 24, 2021

मनुष्यता - मैथिलीशरण गुप्त

  मनुष्यता 

                                    - मैथिलीशरण गुप्त 

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।

हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[मर्त्य-मरणशील, सुमृत्यु - अच्छी मृत्यु,  वृथा - बेकार, पशु प्रवृत्ति - पशु जैसा स्वभाव ]

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

[उदार- दानशील, सरस्वती - विद्या की देवी,  कृतार्थ - आभारी, धरा - पृथ्वी, कीर्ति-यश, कूजती-फैलती, सृष्टि- विश्व, अखंड - अविभाजित, असीम- असीमित, जिसकी कोई सीमा न हो ]

क्षुधार्थ रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[क्षुधार्थ- भूख से पीड़ित, करस्थ - हाथ में स्थित,  परार्थ - दूसरों के लिए, अस्थिजाल - हड्डियों का समूह, उशीनर-गांधार देश का राजा, स्वमांस-अपने शरीर का मांस, चर्म- चमड़ा, अनित्य - जो सदा नहीं रहती, नाशवान,  देह - शरीर, जीव-आत्मा, अनादि-अविनाशी ]


सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ सहानुभूति - सद्भावना, महानुभूति- बड़ी भारी पूँजी, वशीकृता - वश में की हुई, मही-धरती, प्रवाह-धारा, विनीत- नम्र, लोक वर्ग - जनता, विरुद्धवाद-विरोधी परंपरा ] 

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में|
अनाथ कौन हैं यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं|
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ मदांध - अभिमान, वित्त - धन,  पूँजी, सनाथ - जिसका स्वामी है, गर्व - अभिमान, अनाथ -जिसका कोई न हो, विशाल - बड़ा , त्रिलोकनाथ - ईश्वर ]

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ अनंत देव  - ईश्वर, भगवान, समक्ष - सामने, स्वबाहु  - अपने हाथ, परस्परालंब -एक दूसरे का सहारा, अमर्त्य -भगवान, देवता, अंक - गोद, अपंक - कलंक रहित ]

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ बंधु - भाई, दोस्त, विवेक - ज्ञान, स्वयंभू - भगवान, अंतरैक्य - आत्मा की एकता , अनर्थ  -बुरा, प्रमाणभूत  - साक्षी, गवाह, व्यथा - दर्द, पीड़ा ]

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ अभीष्ट - इच्छित, अतर्क - वाद-विवाद से परे, हेलमेल - मेल-जोल, पंथ-रास्ता  ]

 

Monday, May 24, 2021

समय सरिणी की आवश्यकता

 



समय सरिणी की आवश्यकता

      संसार में मनुष्य का आना और जीवन के प्रत्येक क्षण को जीने की सीमित अवधि होती है । धीरे-धीरे समय बीतता है और मनुष्य अपनी जीवन लीला के किरदार को निभाता चलता है  और एक निश्चित समय के उपरांत शरीर से प्राण त्याग देता है । कहने का तात्पर्य है कि जन्म और मृत्यु के बीच के सफर का समय निश्चित है, जोकि ईश्वर द्वारा तय किया गया है । हम सभी जानते है कि जीवन का एक-एक पल बहुमूल्य है, उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए । जीवन को सफल और सार्थक बनाने के लिए हमारे जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण है समय सरिणी। समय सरिणी होने से हम अपनी दिनचर्या और प्रत्येक कार्य से परिचित रहते हैं, जिससे हम सभी कार्य समय पर पूर्ण हो कर सकते हैं और जीवन के प्रत्येक पल का सदुपयोग कर सकते हैं । समय और लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करती । बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता है । जो व्यक्ति समय की कद्र नहीं करता, समय उसकी कद्र नहीं करता । समय ने बड़े-बड़ों को मिट्टी में मिला दिया है । इसलिए मनुष्य के महत्त्व को समझना चाहिए ।   

                                                                     - डॉ. पूजा हेमकुमार अलापुरिया 





Wednesday, February 10, 2021

भारत की ग्रामीण समस्याएँ

 

"भारत की ग्रामीण समस्याएँ"  

     भारत को  विश्वस्तर  पर विकासशील देश माना जाता है| भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है| बड़ी-बड़ी कंपनियाँ भारत में अपना स्थान बना रही है |

 `डिजिटल इंडिया´ की बात तो चर्चाओं में है| ट्रेन का स्थान मेट्रो और  बसों  की जगह इलेक्ट्रिक  बस  ने ले ली है| हाल फिलाल का उदाहरण ऑनलाइन शिक्षा को ही ले लीजिए| इस महामारी के दौर में शहरों के विकसित होने के कारण बच्चों की शिक्षा  मे रूकावट नहीं आई |

     पर अभी भी भारत की ग्रामीण क्षेत्रों की हालत  वैसी  ही है | शहरों के होते हुए विकास ने ग्रामीण क्षेत्रों को अपने नीचे दबा दिया है| जिस वजह से ग्रामीण क्षेत्र में विकास की किरण बहुत ही मुश्किल से पहुंचती है| ग्रामीण लोगों का रुझान से शहरों की तरफ बढ़ते जाता है जैसे कि एक सूरजमुखी का रुझान सूरज को ओर  होता है| 

      भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक समस्याएं हैं  शिक्षा के अभाव से लेकर नौकरी के अभाव तक |बच्चों को चाहते हुए भी उनके हक की शिक्षा प्राप्त नहीं हो रही |गांव में लोगों के पास बिजली नहीं होती इलेक्ट्रिक बस   तो  सोच के परे हैं| गांव में आज भी वही पुरानी जिंदगी चल रही है बस गति और कम हो चुकी है| ग्रामीण क्षेत्र में मेडिकल सर्विस  की समस्या सबसे बड़ी और भयानक है| गांव के लोगों का  मॉडर्न  मेडिकल  टेक्नोलॉजी से वास्ता ही नहीं |  नौकरी के अभाव के कारण गांव के लोग अपने परिवार से दूर पेट भरने का उपाय ढूंढने जाते हैं  |मूई पेट के लिए उन्हें पलायन करना ही पड़ता है |

 किसानों की हालत तो सबसे बुरी है| जिस वर्ष फसल अच्छी होती है  उस  वर्ष  उसकी कीमत कम मिलती है और अगर फसल खराब निकले तो कीमत की बात ही नहीं आती| किसान हर ओर से घुन की तरह पिस रहे हैं| ग्रामीण हिस्सों में विकास की रेलगाड़ी बहुत धीमी गति से चल रही है|  शहर और गाँव को `सड़क´ नामक कड़ी जोड़ती है  जिसका अभाव गाँव में हर जगह दिखाई देता है|  इस अभाव के कारण शहर से चली हुई विकास की गाड़ी गाँव  तक पहुँच नहीं पाती है |  गाँव में लोगों को परिवहन के लिए जूझना पड़ता है|  सफर करते वक्त उनको SUFFER°°  करना पड़ता है| ऐसे अनेकों समस्याएं हैं ग्रामीण क्षेत्र में |

     भारत का ग्रामीण क्षेत्र उसकी रीढ़ की हड्डी है जो दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही है| इसे मजबूत करने की जिम्मेदारी हमारी है | अगर नीव ( गाँव ) मजबूत होगा तो मकान (देश) की मजबूती पक्की है |


                            खुशी सिंह

                          कक्षा -12th

                       CHRIST ACADEMY JR.COLLEGE, NAVI MUMBAI

Thursday, October 1, 2020

3. स्वर्ग बना सकते हैं ( रामधारी सिंह ‘दिनकर’) कविता का भावार्थ ICSE BOARD

स्वर्ग बना सकते हैं

-       रामधारी सिंह ‘दिनकर’

 

कविता का भावार्थ


धर्मराज यह भूमि किसी की

नहीं क्रीत है दासी

है जन्मना समान परस्पर

इसके सभी निवासी।

शब्दार्थ :

धर्मराज – युधिष्ठर का उपनाम, भूमि – धरती, क्रीत - खरीदी हुई, दासी - सेविका, जन्मना - जन्म से, परस्पर - एक दूसरे के साथ, निवासी - रहने या बसने वाला व्यक्ति  

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों में भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि यह भूमि  किसी की खरीदी हुई दासी नहीं है।  इस भूमि पर रहने वाले सभी निवासियों को उनके जन्म से एक जैसे अधिकार प्राप्त हैं । यह भूमि पूर्ण स्वतंत्र है ।

 

सबको मुक्त प्रकाश चाहिए

सबको मुक्त समीरण

बाधा रहित विकास, मुक्त

आशंकाओं से जीवन।

शब्दार्थ :

मुक्त – आजाद,  प्रकाश– रोशनी, समीरण– वायु, बाधा–मुश्किल, अड़चन, रहित–के बगैर, विकास–उन्नति,प्रगति, आशंका – संदेह, अंदेशा,

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों में पितामह भीष्म धर्मराज युधिष्ठिर कहते हैं कि प्रत्येक  व्यक्ति को एक समान प्रकाश और वायु की आवश्यकता है । उनके जीवन का विकास बाधारहित (मुश्किलों के बगैर) तथा संदेह या शंकाओं से मुक्त होना चाहिए।

 

लेकिन विघ्न अनेक अभी

इस पथ पर अड़े हुए हैं

मानवता की राह रोककर

पर्वत अड़े हुए हैं ।

शब्दार्थ :

विघ्न– बाधा, अनेक–कई, पथ–रास्ता, मानवता–इंसानियत, राह– मार्ग,

पर्वत–पहाड़

भावार्थ - भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि इस भूमि के विकास के पथ  पर अनेक विघ्न बाधा स्वरूप अडिग खड़े हुए हैं । सभी निवासियों को एक समान अधिकार प्राप्त नहीं हो रहे हैं । समाज विभिन्न जाति-पाँति, वर्ग, धर्म, वर्ण आदि जैसी अनेक बाधाएँ मनुष्य के जीवन में मानवता की राह में रुकावटें बन अड़ी हुई हैं ।

 

 

न्यायोचित सुख सुलभ नहीं

जब तक मानव-मानव को

चैन कहाँ धरती पर तब तक

शांति कहाँ इस भव को?

 

शब्दार्थ :

न्यायोचित– न्याय के अनुसार जो उचित हो,  सुलभ– आसान,   चैन– सुकून,  धरती– पृथ्वी,  भव– संसार

भावार्थ – भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि जब तक इस भूमि पर रहने वाले मनुष्य को न्याय के अनुसार सुख-सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो जातीं तब तक उसे चैन और शांति कहाँ ? और इस संसार को शांति प्राप्त नहीं होगी । यदि इस धरती पर शांति-अमन और चैन लाना है तो सभी मनुष्य को न्यायोचित सुख-सुविधाएँ देना आवश्यक है ।


जब तक मनुज-मनुज का यह

सुख भाग नहीं सम होगा

शमित न होगा कोलाहल

संघर्ष नहीं कम होगा।

 

शब्दार्थ :

मनुज–मानव, सम–समान. बराबर, शमित–शांत, कोलाहल–फैले हुए, शोर , संघर्ष–प्रयास, होड़,


भावार्थ– भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि जब तक मनुष्य जीवन में समानता का सुख नहीं होगा, तब तक मनुष्य के मन में अशान्ति और बेचैनी बनी रहेगी । जब तक प्रकृति के साधन सबको बराबर नहीं मिल जाते तब तक अन्याय के विरुद्ध मानवता का संघर्ष अथवा द्वेष कम नहीं होगा ।  

 

उसे भूल वह फँसा परस्पर

ही शंका में भय में

लगा हुआ केवल अपने में

और भोग-संचय में।

 

शब्दार्थ :

भूल–भूलने की क्रिया, फँसा–उलझना, शंका–संदेह, भय–डर, भोग–उपभोग, प्राप्त करना, संचय–संग्रह करना, इकट्ठा करना 

 

भावार्थ – भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि मनुष्य  अपने कर्तव्यों को भूलकर संदेह के जाल में फँस चुका है। भयभीत होकर वह अपने बल और पराक्रम को बढ़ाने के लिए भोग विलास की वस्तुओं के संग्रह में लिप्त दिखाई देता है । मनुष्य इतना स्वार्थी हो चुका है कि उसे अब इस धरती पर रहने वाले अन्य विवासियों से कोई सरोकार नहीं है । ऐसी स्थिति में शांति की कल्पना करना संभव नहि है ।

 

प्रभु के दिए हुए सुख इतने

हैं विकीर्ण धरती पर

भोग सकें जो उन्हें जगत में,

कहाँ अभी इतने नर?

 

शब्दार्थ :

प्रभु–ईश्वर,   विकीर्ण–फैले हुए,  जगत–संसार

 

भावार्थ– भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि धरती पर ईश्वर के दिए सुखों का अपार भंडार सर्वत्र फैला हुआ है । यदि मनुष्य इन सुखों के महत्त्व को समझकर उनका सदुपयोग करे, तो धरती के समस्त मनुष्य द्वारा इन सुखों का उपभोग करने पर भी वे इनको समाप्त नहीं कर पाएँगे ।

 

सब हो सकते तुष्ट एक-सा

सब सुख पा सकते हैं

चाहें तो पल में धरती को

स्वर्ग बना सकते हैं।

 

शब्दार्थ :

तुष्ट–संतुष्ट,    स्वर्ग–देवलोक    

 

भावार्थ – भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि ईश्वर ने मनुष्य को इस धरती पर  सुखों का अपार भंडार दिया है, इससे धरती के सभी मनुष्य पूर्ण तृप्त हो सकते हैं । स्वार्थपरायण स्वभाव ने मनुष्य को मौकापरस्त बना दिया है । यदि इन सुखों का समानतापूर्वक उपभोग किया जाए तो सभी इसका सुख भोग संतुष्ट  हो सकते हैं । यदि मनुष्य चाहें तो आपसी सहयोग और तालमेल की भवना से धरती को स्वर्ग बना सकते हैं ।

                                 - डॉ. पूजा हेमकुमार अलापुरिया 


Thursday, September 24, 2020

पाठ -14 पल्लवन कक्षा - 12, HSC BOARD स्वाध्याय पाठ पर आधारित

 

स्वाध्याय पाठ पर आधारित


(१) पल्लवन की प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए

उत्तर : पल्लवन की प्रक्रिया इसप्रकार है :

1.विषय को भली-भाँति पढ़ना, समझना, ध्यान केंद्रित करना, अर्थ स्पष्ट होने पर पुन: सोचना

2. विषय की संक्षिप्त रूपरेखा बनाना, उसके पक्ष-विपक्ष में सोचना, फिर  विपक्षी तर्कों को काटने हेतु तर्कसंगत विचार करना उसके बाद तर्कसंगत  तथा सम्मत विचारों को संयोजित करना तथा असंगत विचारों को हटाकर अनुच्छेद तैयार करना

3.शब्द पर ध्यान देकर शब्द सीमा के अनुसार पल्लवन करना और अंत में लिखित रूप को पुन: ध्यानदेकर पढ़ना और एक बात विद्यार्थियों! पल्लवित किए जा रहे कथन को परोक्ष कथन और भूतकालिक क्रिया के माध्यम से अन्य पुरुष में कहना चाहिए उत्तम तथा मध्यम पुरुष का प्रयोग पल्लवन में नहीं होना चाहिए

 

(२) पल्लवन की विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए

उत्तर : पल्लवन की विशेषताएँ :

(१) कल्पनाशीलता : पल्लवन लेखन के लिए दी गई काव्य पंक्ति, सूक्ति, उक्ति आदि के लिए नई-नई कल्पनाओं का सृजन करना आना चाहिए ।

(२) मौलिकता : विचारों और लेख की मौलिकता का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है ।

(३) सर्जनात्मकता : पल्लवन में रचनात्मकता अर्थात नवीनता स्पष्ट झलकनी चाहिए ।

(4) प्रवाहमयता : लेखन करते समय शब्दों और वाक्यों में एक प्रवाह होना चाहिए । ताकि पढ़ने वाली अवरुद्ध गति उसे पढ़ता  चला जाए ।

(5) भाषाशैली : भाषा की क्लिष्टता में उलझने की आवश्यकता नहीं है । भाषा सरल और प्रभावी होनी चाहिए ।

(६) शब्दचयन : शब्द सरल और आम बोल चाल वाले हों ताकि पढ़ने के उपरांत सामान्य व्यक्ति भी उसके भाव को आत्मसात कर सके । 

(७) सहजता : किसी संवेदनशील अथवा गंभीर तथ्य को सहजता पूर्वक कहने की कला ।

(8) स्पष्टता : प्रत्येक शब्द और वाक्य से उक्ति संबंधी तथ्य स्पष्ट होना चाहिए। बात को घुमा-फिरा कर कहने की आवश्यकता नहीं ।

(९) क्रमबद्धता : पल्लवन में तथ्यों की क्रमबद्धता दिखाई देने चाहिए ।

 

 

व्यावहारिक प्रयोग


(१) ‘‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होइ’’, इस पंक्ति का भाव पल्लवन कीजिए

उत्तर : ‘ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होइ’ संत कबीर जी द्वारा कही गई यह पंक्ति आज भी प्रासंगिक है। पुस्तकें पढ़कर ज्ञान हासिल किया जा सकता है,परन्तु इस किताबी ज्ञान से व्यक्ति पंडित नहीं बन सकता है। किताबों के ज्ञान से हट कर जिस व्यक्ति ने प्रेम को समझ लिया है, वही सबसे बड़ा ज्ञानी है। क्योंकि ऐसे व्यक्ति के हृदय में सभी के प्रति प्रेम, आदर, दूसरों की भावनाओं को समझने की क्षमता  होती है। उसका हृदय प्रेम की अनुभूति और निष्पक्ष भावों से अवगत होता है। ऐसे व्यक्ति को ही कबीर जी वास्तविक विद्वान मानते हैं। अनगिनत लोग जीवन भर ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करते हुए संसार से विदा हो गये परन्तु कोई पंडित या ज्ञानी नहीं हो पाया क्योंकि वे अपने जीवन में प्रेम अर्थात ईश्वर का साक्षात्कार कर पाने में असमर्थ रहे।

 

(२) ‘लालच का फल बुरा होता है’, इस उक्ति का विचार पल्लवन कीजिए

उत्तर : ‘लालच का फल बुरा होता है’ यह उक्ति शत प्रतिशत सत्य है। इस बात को चाहकर भी झुठलाया या नकारा नहीं जा सकता है। मानव-जीवन में कामनाओं और लालसाओं का एक अटूट सिलसिला चलता ही रहता है। सबकुछ प्राप्त होने के बावजूद कुछ और पाने की लालसा से  मनुष्य मृत्युपर्यंत मुक्त नहीं हो पाता। अधिकांश को धन की लालसा होती है। लालसा भी इस बात की कि वह जीवन को सुखपूर्वक भोगे। मनुष्य अपनी लालसाओं को पूर्ण करने हेतु गलत रास्तों को अपना लेते हैं, परंतु वे इसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते हैं। चोरी, धोखा-धड़ी आदि गलत तरीकों से प्राप्त किए गए सुख अथवा धन की आयु लंबी नहीं होती। लालच में किए गए छोटे-बड़े अपराध की सजा तो भुगतनी ही पड़ती है। इससे रिश्तों में खटास उत्पन्न हो जाती है तथा अपनों के समक्ष निंदा का पात्र बन आजीवन शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। अक्सर देखा गया है कि कष्टों से जीवन व्यतीत करने वाला निर्धन भी अपनी दीन-हीन स्थिति में अपने परिवार समेत संतुष्ट और सुखी रहता है वहीं धनकुबेर तथा सारे ऐश्वर्य को भोगने वाला धनी व्यक्ति अंतःकरण में भयभीत, असंतुष्ट और दुःखी रहता है।

 

पल्लवन के बिंदु

v पल्लवन में सूक्ति, उक्ति, पंक्ति या काव्यांश का विस्तार किया जाता है

v  पल्लवन के लिए दिए वाक्य सामान्य अर्थवाले नहीं होते

v  पल्लवन में अन्य उक्ति का विस्तार नहीं जोड़ना चाहिए

v  क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग करें

v  पल्लवन करते समय अर्थों, भावों को एकसूत्र में बाँधना आवश्यक है

v  विस्तार प्रक्रिया अलग-अलग दृष्टिकोण से प्रस्तुत करनी चाहिए

v  पल्लवन में भावों-विचारों को अभिव्यक्त करने का उचित क्रम हो

v  वाक्य छोटे-छोटे हों जो अर्थ स्पष्ट करें

v  भाषा का सरल, स्पष्ट और मौलिक होना अनिवार्य है

पल्लवन में आलोचना तथा टीका-टिप्पणी के लिए स्थान नहीं होता








 













मनुष्यता - मैथिलीशरण गुप्त

    मनुष्यता                                               -  मैथिलीशरण गुप्त  विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो...