Saturday, December 14, 2019

हिंदी उपन्यासों में चित्रित धार्मिक अवधारणाएँ




आज सम्पूर्ण विश्व इक्कीसवीं सदी के अत्याधुनिक वैज्ञानिक युग एवं भूमंडलीकरण के दौर में अपना जीवन यापन कर रहा है I दैनिक जीवन में उन यंत्रों की तकनीक को आत्मसात कर जीवन को सरलसहज एवं साफल्य बनाने के प्रयास में क्रियाशील है I नित नवीन होने वाले प्रयोगों को अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में पूर्णरूपेण धारण कर लिया है I शारीरिक तौर पर रहन-सहनखान-पानबोली-भाषा आदि में बदलाव अवश्य देखने को मिलता है किन्तु मानसिकता में कोई बदलाव प्रतीत नहीं होता समाज में धर्मअंधविश्वासढकोसलोंरूढ़िवादी परंपराओं आदि के प्रति लोगों की मानसिकता में विशेष बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता I धार्मिक परंपराओं के प्रति लोगों का अडिग विश्वास स्पष्ट दिखाई देता है Iने अपनी कृतियों में विशेष स्थान तो दिया ही है साथ ही साथ इन आडम्बरों पर कड़ा विरोध करते हुए पाठकों के समक्ष उसका सशक्त निवारण भी प्रस्तुत किए हैं I 
भारतीय परिवारों में झाडफूंक एवं धार्मिक विचारों को स्पष्ट करते हुए 'कोई बात नहींउपन्यास में अलका सरावगी जी लिखती हैं, "दादी ऐसे समय में बत्ती जलाकर उसके उजाले को जरूर प्रणाम करती थी I जब तक आकाश में पूरी तरह अँधेरा न होतावह घर में झाड़ू-बुहारी नहीं करने देती थी I इसका संबंध धन की देवी लक्ष्मी  यानि जिंदगी के डॉ नंबर सुख से था I" घर की साफ़-सफाई और शाम के वक्त घर में जलने वाली दीया बत्ती का कैसा सहसंबंध I इस धारणा के पीछे दादी का क्या मंतव्य होगा जो अगली पीढ़ी का जीवन भी इन्हीं ढकियानुसी विचारों की साँठ-गाँठ से रच रही है I वहीँ दूसरी तरफ 'त्रिया हठउपन्यास में मधु कांकरिया जी धार्मिक विडम्बनाओं पर लिखती है, " मुसलमान लोग जब खैरात करते हैंआँखें बंद कर लेते हैं कि उन्हें याद न रहेकिसको क्या दान दिया I हमारे ख्याल में अहसान की अपनी टेक खुदा-पैगंबर भी जानते होंगे I"  समाज में स्वयं बनी कुरीतियों से मुँह फेर कर किए गए दान का कोई मोल है क्या ? जब खैरात आंटने में इतनी पीड़ा होती है तो ऐसे दान पुण्य और दिखावे की क्या आवश्यकता 
नमिता सिंह जी 'लेडिज क्लब' उपन्यास में धर्म एवं लखनऊ के जनाना पार्क से जुड़े वाकये को कुछ इस कदर लिखिती हैं, " आब महिलाएँ इकट्ठा होती हैं सिर्फ देवी जागरण के लिए, राम कथा, विष्णु कथा, कृष्ण कथा, सिर्फ कथाओं के लिए I कोई भी कथा हो, उस पर धर्म पताका लगी रहना काफी है I आप अपनी कथा सुना दीजिए और कह दीजिए यह धर्म सभा की कथा है I धर्म हमेशा से औरतों के ही आंचल में चाबी के गुच्छे की तरह लटका रहा है I" ईश्वर के स्मरण हेतु घर परिवार से दूर जाकर औरतों द्वारा चीख-चीखकर भजन कीर्तन करना क्या इचित है I क्या इस तरह के प्रदर्शन से ही देवी देवता प्रसन्न होते हैं I शोर-शराबा करने से किसी भी धर्म का देवता खुश नहीं होता और न ही ऐसे प्रदर्शनों से ईश्वर कोई-मनोकामना पूरी करता है I मनोकामना कड़ी म्हणत, सच्ची लग्न और ईमानदारी से पूरी होती है I फिर ऐसे आडम्बर की क्या आवश्यकता I
नासिरा शर्मा 'कुइयाँजान' उपन्यास में धार्मिक मान्यताओं का चित्रण करते हुए लिखती हैं, " अरे नासपीटे ! उन्हें मरे फफ्तों गुजर गए हैं और उनको अभी तक समझ रहा है ? कब्र की इबादत करना ठीक बात नहीं I जुमा जुमा जाकर फातिहा पढ़ आया कर I समझे गुदड़ी के लाल !" बदलू का मौलवी के प्रति विशेष स्नेह था इसलिए वह अक्सर उनकी कब्र पर सुकून के पल बिताना चाहता है मगर उस पर भी रोक थम लगे जाती है I बदलू के साथ किया जाने वाला व्यवहार उचित था या उसे समझाने का तरीका उचित था I   
मेहरून्निसा परवेज ने ‘अकेला पलाश’ उपन्यास में धर्म की संकुचित सीमाओं का खंडन करते हुए कहा है, “दुनिया में धर्म नहीं हैं, ऐसी बात नहीं है, वह है, पर घर कि दहलीज के अंदर तक I जब हम दहलीज के बाहर निकल आए है, बाहर का कम करने, तो यह जात-पात, ऊँच- नीच की भावना हमें त्याग देनी चाहिए I” भारतीय समाज में आस्था पर कम ध्यान दिया जाता है और धार्मिकता के ढोंग तथा प्रदर्शन पर अधिक I ममता कालिया जी पंडितों द्वारा दिए जाने वाले श्राप के विषय में लिखती हैं, “हम वशिष्ट ब्राह्मण हैं I हमें प्रसन्न नहीं किया तो यह यात्रा विफल हो जाएगी I अगली पूर्णमासी फिर आना पड़ेगा I बहुत पछताना पड़ेगा, बताइ डेट हैं तुमका I” संजीव के ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ उपन्यास में जातीयता के पाखंड और कोहराम को देखा जा सकता है I फेंकन बहू द्वारा मात्र बरतन छू ले ने से वे बरतन अछूते हो जाते हैं I पड़ाइन अपने जातीय दंभ का परिचय देते हुए, “अरे तेरा हिम्मत कैसे हुआ रे बाभन का बरतन छूने को ...?” मगर दूसरे दिन पड़ाइन फेंकन बहू से अपने देह कि मालिश करवाती है I फेंकन बहू का मानना था कि बरतन उसके छूने से अगर भ्रष्ट होते है तो पड़ाइन का पूरा देह भी अछूता हो जाए तो ....I धर्म के आड़ म अनेक घिनौने अपराधों को अनजाम दिया जाता है I मुट्ठीभर लोग अपने मंतव्यों को पूरा करने हेतु भोले-भाले लोगों को धर्म के नाम पर ठगते है और उन्हें सच्चाई से कोसो दूर रखते है I उपन्यासों में किए गए धार्मिक आडंबरों का वर्णन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों का चित्रण करता है तथा समाज की संकुचित मानसिकता का ब्यौरा भी देता है
समाज में धर्म की महानता और उसका अनुकरण न करने के प्रकोपों का गुणगान किया जाता है किन्तु धर्म की महानता के अंतर्गत समाज की इन बुराइयों के निराकरण के विषय में कोई सशक्त और प्रखर कदम उठाने के तथ्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता I 


मनुष्यता - मैथिलीशरण गुप्त

    मनुष्यता                                               -  मैथिलीशरण गुप्त  विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो...