Sunday, January 12, 2020

मकर संक्रान्ति पर कविता-चली आती जो तुम

चली आती जो तुम

चली आती जो तुम भी 
संक्रांति के  त्यौहार पर ,
तो मायके की गलियाँ 
गुंजित हो जाती, 
द्वार के तोरन भी चहक से जाते, 
भैया भाभी की बाँछे भी 
खिल- खिल सी जाती, 
घर के आँगन की रंगोली में 
सतरंगी रंग चमक चमक से जाते, 
चली आती जो तुम भी 
संक्रांति के  त्यौहार पर ,

 घर के हर कमरों की रंगत भी 
कुछ बदल सी जाती, 
दरवाजे और छत सखियों और 
भाभी की गप शप से चिचिहा जाते, 
अमरूद की डालिया भी शीश नवाने को 
झुक झुक सी जाती,
चली आती जो तुम भी 
संक्रांति के  त्यौहार पर ,

तिल गुड के भुनने की सौंधी खुशबू से
घर सारा महक सा जाता, 
माँ - बाऊजी  का दिल 
तुम्हारे आने की बात से 
गदगद हो आता. 
चली आती जो तुम भी 
संक्रांति के  त्यौहार पर |

         - डॉ. पूजा हेमकुमार अलापुरिया
       

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