Wednesday, December 25, 2019

जागते रहो !





“चौकीदार चाचा नमस्ते, कैसे हो?”

“अरे, बिटिया कब आए ससुराल से ? (थोड़ा रुक कर) सब बढ़िया है तुम्हारे परिवार में ?”

“हां चाचा सब बढ़िया है I आप सुनाओ I चाची कैसी है ?” 

बिटिया तुम इतने सालों में आती हो, खैर खबर ही नहीं तुम्हें I

“क्यों चाचा ऐसा क्यों बोल रहे हो आप ? चाची तो ठीक है ना ?”

“तीन  सालों से तुम्हारी चाची ने खाट पकड़ ली हैI उसे उठाने-बैठाने के लिए भी एक इंसान चाहिए I मैं ठहरा बूढ़ा I अब इस शरीर में इतनी जान नहीं बची है, बस राम भरोसे ही गाड़ी खिंच रही हैI

“चाचा आज ही आई हूँI एक दिन चाची से मिलने आती हूँ I

आपका बेटा शंकर है ना I क्या वह चाची का ख्याल नहीं रखता I अब तो काफी बड़ा हो गया होगा I उसकी शादी हुई या नहीं I

“हाँ बिटिया बेटा भी है और बहू भी I
 मगर दोनों ही बेकारI दोनों हमारे किसी काम के नहींI बहू को तो हम दोनों बुड्ढा - बुड्ढी बिल्कुल नहीं सुहाते हैंI बेटे को भी बहू की बातें सुनाई देती हैI छोड़ो बेटा यह तो कर्मों का फल है जैसा बोया होगा, आज वैसा ही काट रहे हैंI

“चाचा मुझे आज भी याद है आप अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभाया करते थे I और आज भी...I आपके स्वभाव और अपनेपन में भी कोई कमी नहीं आई हैI

“चाचा जब हम इस शहर में रहने आए थे, तब आधी रात को पहली बार आपकी आवाज सुनकर मैं काँप गई थी I कई दिनों तक ज्वर से पीड़ित रही I रात होते ही भय मुझे जकड़ लेता कि अभी खूंखार, भयावह और विशालकाय वाला कोई आएगा I फिर जोर-जोर से बजती सीटियों के साथ “जागते रहो! जागते रहो!” की आवाज मेरे कानों को चीरती I मेरे हृदय तल पर एक कौंध-सी उभर गई थीI रह-रह कर मन में ही बात आती कि एक दिन यह व्यक्ति मुझे चुरा कर ले जाएगा I

अच्छा बिटिया! मुझे तो पता ही नहीं I बिटिया तुम्हारे हृदय से मेरी भयावहता का भय कैसे निकला?”

दोनों खिलखिला कर हँसते हैं I हँसते हुए बिटिया कहती है, “चाचा आज मुझे हँसी आ रही है मगर उन दिनों तो मेरी स्थिति बहुत भयावह थी।”

“बिटिया हँसो, मगर बता तो दो…...I
“हाँ-हाँ, चाचा बताती हूँ I मम्मी-पापा ने खूब समझाया, मगर मैं मानने के लिए तैयार ना थीI अरे! चाचा खड़े क्यों हो ? अंदर आ जाइए I क्या सारा किस्सा यहीं देहरी पर ही सुनोगे I
नहीं-नहीं बिटिया I मैं यही ठीक हूँ...I
“अरे चाचा कैसी जिद करते हैं आप I अंदर आ जाइए।”
“नहीं बिटियाI यहीं देहरी पर बैठ जाता हूँI अब तुम बताओ फिर क्या हुआ ?”
“हाँ चाचा बताती हूँ I मुझे आज भी याद है कि किस तरह से आपका परिचय हुआ था I मैं उस दिन को कभी नहीं भूल सकती I

“क्यों बेटा ? ऐसा क्या हुआ था जो मेरे परिचय का दिन तुम्हारी स्मृति में आज भी समाया हुआ है।”

जी चाचा I रात की चौकीदारी के उपरांत अगली सुबह आप अपनी तनख्वाह लेने घर-घर दस्तक दे रहे थे I पापा घर पर ही थे I मैं और पापा छत पर रखे पौधों पर पानी छिड़क रहे थे I तभी आपने पड़ोस वाले ताऊजी के घर का कुंडा खटखटाया I काफी देर तक दरवाजा खटखटाने पर भी भीतर से कोई प्रतिक्रिया न दीखाई दी I आपने एक बार और प्रयास किया शायद कोई दरवाजा खोल दे I मगर..I आप निराश हो हमारे घर की ओर कदम बढ़ा ही रहे थे कि ताऊ जी के बड़े बेटे ने दरवाजा खोला I दरवाजा खुलते ही आपके चेहरे पर उम्मीद की एक लहर दौड़ पड़ी I आप मुस्कुराते हुए मुड़े ही थे कि तभी संजीव भैया भर्राते स्वर में आप पर बरस पडे क्यों भई अँधा–बहरा है क्या तू ? समझ नहीं आता क्या ? जब एक बार में दरवाजा नहीं खोला तो उसे पीटने की क्या जरूरत है I (संजीव चौकीदार से कहता है )
साब जी मैं तो.I
क्या मैं तो ?
साब जी मैं तो अपने पैसे लेने आया था।
अरे! कैसे पैसे ? क्या हमने तुमसे लिए हैं ? या तू देकर भूल गया हैI
नहीं साब जीI मैं तो रात की चौकीदारी के पैसे मांग रहा थाI
कैसी चौकीदारी I तुम सबके सब निठल्ले होI रात को मुहल्ले में जो चोरियाँ होती है उसमें तुम लोगों का ही हाथ होता है I चौकीदारी के नाम पर रात को चोरियाँ करवाते हो तुम I आज तो आ गया है फिर से दिखाई न देना यहाँ I चोर कहीं केI
साब जी गाली मत दो I हम पूरी इमानदारी से चौकीदारी करते हैं I
हाँ, हाँ, हमें पता है कि तुम कितनी इमानदारी से..I
साब जी मेरा मेहनताना दे दो I
मेरे घर से तुम्हें कुछ नहीं मिलेगाI अपना रास्ता नापों...I
संजीव भैया ने न जाने क्या-क्या आरोप आप पर थोपने शुरू कर दिए I आप बड़ी शालीनता और धैर्य बांधे चुपचाप खड़े रहे I संजीव भैया के ऊँचे और कटु स्वर ने पूरे मुहल्ले को इकट्ठा कर लिया।
पापा ने छत के छज्जे से जो दृष्टि गली में फेरी तो देखा पूरा मुहल्ला एकत्रित हो चुका है I पापा मुझे साथ लेकर गली की ओर दौड़े I एक निर्दोष और इमानदार के साथ कैसी नाइंसाफी की जा रही है और सब तमाशा देख रहे हैं I क्या हुआ संजीव? पापा ने भैया से पूछा I
चाचा जी देखो कैसी धौंस जता रहा है, ये दो टके का चौकीदार I एक तरफ कामचोरी करते हैं और दूसरी तरफ पैसे मांग रहा है I
हाँ संजीव तुम ठीक कह रहे हो I
पापा की बात सुन संजीव की ख़ुशी का ठिकाना न रहा I मगर आप (चौकीदार) की निराशा स्पष्ट झलक रही थी I वहाँ उमड़ी भीड़ भी यही सोचने लगी की संजीव अब तक जो कह रहा था सब ठीक था I लोगों के चेहरे पर भी चमक सी आ गई I मैं चुपचाप सब सुन और देख रही थी संजीव एक बात बताओ हमारे मुहल्ले में अब तक कितनी चोरियाँ हुई है ?
एक भी नहीं चाचाजी I
कभी कोई हत्या या खून खराबे की बारदात हुई है क्या ?
नहीं चाचाजीI
आधी रात को किसी के घर में घुसने की कोई घटना ?
नहीं चाचा I
देर रात को लौटते समय तुम्हारे या परिवार के साथ कोई छेड़-छाड़, बदतमीजी, झडप, लूटपाट आदि ऐसा कुछ हुआ क्या?
नहीं चाचाजी I
ऐसी कोई रात जब तुम्हारा परिवार असामाजिक तत्वों की चिंता के कारण ठीक से सो न पाया हो ?
नहीं चाचाजी I ऐसा कभी नहीं हुआ।
अच्छा एक बात और बताओ I
हाँ, पूछिए न चाचा जी I
तुम्हें हर महीने ऑफिस से कितनी छुट्टियाँ मिलती है ?
यही कोई चार I मगर चाचा मैं आपकी बात समझा नहीं I और इन सब बातों से इस बहादुर का क्या मतलब ?
संजीव मतलब है I बहादुर पूरा साल एक भी दिन नागा किए बिना ही अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य को पूरी शिद्दत से निभाता है I कभी किसी से ज्यादा पैसा नहीं मांगता I जो कोई अपनी ख़ुशी से जो दे देता है, बेचारा चुपचाप ले लेता है I तुमने इस निर्दोष पर बिना सोचे समझे न जाने कैसे-कैसे आरोप लगा दिए I अपने प्राणों की परवाह किए बिना पूरी रात निष्कपट भाव से हमारी रखवाली करता है I संजीव अभी तुमने ही कहा हमारे मुहल्ले में कभी भी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसके लिए बहादुर को दोषी ठहराया जाए I इनको भी इज्जत प्यारी होती है I ये भी आत्मसम्मान की भावना रखते है I गरीब जरूर है, मगर सबसे पहले ये हमारी-तुम्हारी तरह ही इनसान है I पापा की बात सुन सभी के चेहरे फीके से पड़ गए I
चाचाजी, मुझे माफ़ कर दो I मैं बिना वजह ही बहादुर पर चढ़ गया I संजीव ने अपनी जेब से पैसे निकाले और बहादुर को थमाते हुए क्षमा मांगी I
“बिटिया तुम्हें तो सब याद है I मैं तो कब का भूल चुका था इस घटना को I
“चाचा यही तो खासियत है आपकी I
बस फिर क्या था पापा ने घर आकर मुझे बताया कि आप वही हैं जो रात भर जाग कर हमारी रक्षा करते है और जोर-जोर से सीटी बजाकर कहते हैं “जागते रहो ! (दोनों खिलखिला कर हँस पड़े।)

मनुष्यता - मैथिलीशरण गुप्त

    मनुष्यता                                               -  मैथिलीशरण गुप्त  विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो...