Thursday, October 1, 2020

3. स्वर्ग बना सकते हैं ( रामधारी सिंह ‘दिनकर’) कविता का भावार्थ ICSE BOARD

स्वर्ग बना सकते हैं

-       रामधारी सिंह ‘दिनकर’

 

कविता का भावार्थ


धर्मराज यह भूमि किसी की

नहीं क्रीत है दासी

है जन्मना समान परस्पर

इसके सभी निवासी।

शब्दार्थ :

धर्मराज – युधिष्ठर का उपनाम, भूमि – धरती, क्रीत - खरीदी हुई, दासी - सेविका, जन्मना - जन्म से, परस्पर - एक दूसरे के साथ, निवासी - रहने या बसने वाला व्यक्ति  

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों में भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि यह भूमि  किसी की खरीदी हुई दासी नहीं है।  इस भूमि पर रहने वाले सभी निवासियों को उनके जन्म से एक जैसे अधिकार प्राप्त हैं । यह भूमि पूर्ण स्वतंत्र है ।

 

सबको मुक्त प्रकाश चाहिए

सबको मुक्त समीरण

बाधा रहित विकास, मुक्त

आशंकाओं से जीवन।

शब्दार्थ :

मुक्त – आजाद,  प्रकाश– रोशनी, समीरण– वायु, बाधा–मुश्किल, अड़चन, रहित–के बगैर, विकास–उन्नति,प्रगति, आशंका – संदेह, अंदेशा,

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों में पितामह भीष्म धर्मराज युधिष्ठिर कहते हैं कि प्रत्येक  व्यक्ति को एक समान प्रकाश और वायु की आवश्यकता है । उनके जीवन का विकास बाधारहित (मुश्किलों के बगैर) तथा संदेह या शंकाओं से मुक्त होना चाहिए।

 

लेकिन विघ्न अनेक अभी

इस पथ पर अड़े हुए हैं

मानवता की राह रोककर

पर्वत अड़े हुए हैं ।

शब्दार्थ :

विघ्न– बाधा, अनेक–कई, पथ–रास्ता, मानवता–इंसानियत, राह– मार्ग,

पर्वत–पहाड़

भावार्थ - भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि इस भूमि के विकास के पथ  पर अनेक विघ्न बाधा स्वरूप अडिग खड़े हुए हैं । सभी निवासियों को एक समान अधिकार प्राप्त नहीं हो रहे हैं । समाज विभिन्न जाति-पाँति, वर्ग, धर्म, वर्ण आदि जैसी अनेक बाधाएँ मनुष्य के जीवन में मानवता की राह में रुकावटें बन अड़ी हुई हैं ।

 

 

न्यायोचित सुख सुलभ नहीं

जब तक मानव-मानव को

चैन कहाँ धरती पर तब तक

शांति कहाँ इस भव को?

 

शब्दार्थ :

न्यायोचित– न्याय के अनुसार जो उचित हो,  सुलभ– आसान,   चैन– सुकून,  धरती– पृथ्वी,  भव– संसार

भावार्थ – भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि जब तक इस भूमि पर रहने वाले मनुष्य को न्याय के अनुसार सुख-सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो जातीं तब तक उसे चैन और शांति कहाँ ? और इस संसार को शांति प्राप्त नहीं होगी । यदि इस धरती पर शांति-अमन और चैन लाना है तो सभी मनुष्य को न्यायोचित सुख-सुविधाएँ देना आवश्यक है ।


जब तक मनुज-मनुज का यह

सुख भाग नहीं सम होगा

शमित न होगा कोलाहल

संघर्ष नहीं कम होगा।

 

शब्दार्थ :

मनुज–मानव, सम–समान. बराबर, शमित–शांत, कोलाहल–फैले हुए, शोर , संघर्ष–प्रयास, होड़,


भावार्थ– भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि जब तक मनुष्य जीवन में समानता का सुख नहीं होगा, तब तक मनुष्य के मन में अशान्ति और बेचैनी बनी रहेगी । जब तक प्रकृति के साधन सबको बराबर नहीं मिल जाते तब तक अन्याय के विरुद्ध मानवता का संघर्ष अथवा द्वेष कम नहीं होगा ।  

 

उसे भूल वह फँसा परस्पर

ही शंका में भय में

लगा हुआ केवल अपने में

और भोग-संचय में।

 

शब्दार्थ :

भूल–भूलने की क्रिया, फँसा–उलझना, शंका–संदेह, भय–डर, भोग–उपभोग, प्राप्त करना, संचय–संग्रह करना, इकट्ठा करना 

 

भावार्थ – भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि मनुष्य  अपने कर्तव्यों को भूलकर संदेह के जाल में फँस चुका है। भयभीत होकर वह अपने बल और पराक्रम को बढ़ाने के लिए भोग विलास की वस्तुओं के संग्रह में लिप्त दिखाई देता है । मनुष्य इतना स्वार्थी हो चुका है कि उसे अब इस धरती पर रहने वाले अन्य विवासियों से कोई सरोकार नहीं है । ऐसी स्थिति में शांति की कल्पना करना संभव नहि है ।

 

प्रभु के दिए हुए सुख इतने

हैं विकीर्ण धरती पर

भोग सकें जो उन्हें जगत में,

कहाँ अभी इतने नर?

 

शब्दार्थ :

प्रभु–ईश्वर,   विकीर्ण–फैले हुए,  जगत–संसार

 

भावार्थ– भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि धरती पर ईश्वर के दिए सुखों का अपार भंडार सर्वत्र फैला हुआ है । यदि मनुष्य इन सुखों के महत्त्व को समझकर उनका सदुपयोग करे, तो धरती के समस्त मनुष्य द्वारा इन सुखों का उपभोग करने पर भी वे इनको समाप्त नहीं कर पाएँगे ।

 

सब हो सकते तुष्ट एक-सा

सब सुख पा सकते हैं

चाहें तो पल में धरती को

स्वर्ग बना सकते हैं।

 

शब्दार्थ :

तुष्ट–संतुष्ट,    स्वर्ग–देवलोक    

 

भावार्थ – भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि ईश्वर ने मनुष्य को इस धरती पर  सुखों का अपार भंडार दिया है, इससे धरती के सभी मनुष्य पूर्ण तृप्त हो सकते हैं । स्वार्थपरायण स्वभाव ने मनुष्य को मौकापरस्त बना दिया है । यदि इन सुखों का समानतापूर्वक उपभोग किया जाए तो सभी इसका सुख भोग संतुष्ट  हो सकते हैं । यदि मनुष्य चाहें तो आपसी सहयोग और तालमेल की भवना से धरती को स्वर्ग बना सकते हैं ।

                                 - डॉ. पूजा हेमकुमार अलापुरिया 


मनुष्यता - मैथिलीशरण गुप्त

    मनुष्यता                                               -  मैथिलीशरण गुप्त  विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो...