Wednesday, May 6, 2020

Formal Letter Writing for SSC

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सच हम नहीं, सच तुम नहीं, डॉ. जगदीश गुप्त




 सच हम नहीं, सच तुम नहीं
- डॉ. जगदीश गुप्त

१.     डॉ जगदीश गुप्त का जन्म   : 3 अगस्त 1924 ई॰

२.    जन्म स्थान  : उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के शाहाबाद में हुआ ।  

३.   पिता का नाम : स्व. श्री शिवप्रसाद गुप्त

४.  माता का नाम      :  स्व. श्रीमती रामा देवी

५.  शिक्षा    : बी. ए. , एम. ए. और डी. फिल. का अध्ययन इलाहाबाद में ।

६.    कार्यरत  : 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दीविभाग में प्राध्यापक के    पद पर नियुक्त हुए  

७.    निधन     :      26 मई 2001    
      
८.    प्रमुख रचना :   नाव के पाँव , शम्बूक, आदित्य एकान्त, हिम-विद्ध, शब्द-दंश, युग्म, गोपा गौतम, बोधिवृक्ष, नयी कविता, स्वरूप और समस्याएँ, प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला व भारतीय कला के पद-चिह्न

९.     सम्मान : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ तथा मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित किया गया।

१०.   विशेष रुचि  :  चित्रकला , देश दर्शन तथा पुरातन मूर्तिमुद्रा संकलन ।


डॉ. जगदीश गुप्त की कविता 'सच हम नहीं, सच तुम नहीं' का भावार्थ :















सच हम नहीं, सच तुम नहीं
सच है सतत संघर्ष ही।
संघर्ष से हटकर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृन्त से झरकर कुसुम।
जो पन्थ भूल रुका नहीं,
जो हार देख झुका नहीं,
जिसने मरण को भी लिया हो जीत है जीवन वही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।



भावार्थ : कवि गुप्त जी इन पंक्तियों में कहना चाह रहे हैं कि संसार में वास्तविक सच हम भी नहीं और तुम भी नहीं हो । संसार के सच का वास्तविक रूप तो जीवन में आने वाले संघर्ष हैं, जोकि सतत चलते रहते हैं । यदि हम-तुम संघर्षों से विमुख हो कर जीते हैं तो उसे जीना नहीं कहते हैं । संघर्षों को देख जो भयभीत और कमजोर पड़ जाता है, वह तो मृत समान है । कवि ऐसे भीरु मनुष्य को पेड़ की डाली से टूटे उस फूल की संज्ञा देते हैं, जिसका पेड़ से जुदा होने पर कोई अस्तित्व ही नहीं बचता । कवि आगे कहते हैं कि जो मनुष्य संघर्षों में भी रास्ता भटक जाने पर भी रुका नहीं, जो नित अपनी हार देखकर भी किसी के समक्ष झुका नहीं और जिनसे अपनी मृत्यु पर ही विजय पा ली हो, बस यही वास्तविक जीवन है ।  

 ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे ।
  जो है जहाँ चुपचाप अपने-आपसे लड़ता रहे ।
  जो भी परिस्थितियाँ मिलें,
  काँटे चुभें, कलियाँ खिलें,  
  टूटे नहीं इनसान, बस! संदेश यौवन का यही ।
  सच हम नहीं, सच तुम नहीं

  
भावार्थ : कवि गुप्त जी इन पंक्तियों में कहना चाह रहे हैं कि मनुष्य को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे उसके प्राण स्थिर (अचेतन) को जाए । आप जैसी भी परिस्थितियों में हो, अपने हालातों का रोना रोए बिना ही चुपचाप उन्हीं परिस्थितियों में रहकर अपने आपसे और अपने संघर्षों से लड़ते रहो । जीवन के इस संघर्ष में काँटे मिले या महकती कलियाँ खिले, मनुष्य को इस बात का ध्यान रखना है कि अपनी युवावस्था में कभी भी आत्मीय रूप से टूट न पाए  । क्योंकि युवावस्था उम्र का सबसे नाजुक मोड़ होता है । जहाँ मानसिक रूप से स्वस्थ रहना जरूरी है । यदि  उसका आत्मविश्वास टूट गया तो शायद जीवन के संघर्षों के समक्ष वह कभी स्थिर (डट) नहीं रह पाएगा और  वहीं जीवन का अंत है । संसार में वास्तविक सच हम भी नहीं और तुम भी नहीं  हो ।
 

   हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को ।
  यह क्या मिलन, मिलन वही जो मोड़ दे मँझधार को ।
  जो साथ फूलों के चले,
  जो ढाल पाते ही ढले,
  यह जिंदगी क्या जिंदगी जो सिर्फ पानी सी बही ।
   सच हम नहीं, सच तुम नहीं 



भावार्थ : कवि गुप्त जी इन पंक्तियों में कहना चाह रहे हैं कि हमने ही जीवन में प्यार (सांसारिक मोह माया) और एक – दूसरे के प्रति आकर्षण को रचा है । जिसका कोई मोल नहीं । आओ अब हम-तुम मिलकर स्वयं के रचे प्यार के इतिहास को तोड़ दें । जीवन में ऐसे मिलन का कोई वजूद नहीं जो मिलन की आस में स्वयं को ही इस भवसागर में डुबा दे, बल्कि कवि मिलन उसे  कहते हैं जहाँ मिलन की आस में संघर्षों से जूझता हुआ भवसागर में डूबती नाव का रुख मोड़ स्वयं  सुरक्षित  रहे । मनुष्य को अपने जीवन में फूलों सा निर्मल और सुगंधित होना चाहिए तथा कुम्हार की मिट्टी हाथों के स्पर्श और हल्की सी थाप से ही आकृति में बदलाव कर लेती है, उसी प्रकार मनुष्य को भी होना चाहिए ताकि ढाल पाते ही वह भी ढल जाए । हमारी-तुम्हारी जिंदगी नदी के बहते पानी सी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि बहते पानी जी जिंदगी का कोई अर्थ नहीं होता । संसार में वास्तविक सच हम भी नहीं और तुम भी नहीं हो ।
 

       अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना  
    अपने नयन का नीर अपने-आप हमको पोंछना ।
    आकाश सुख देगा नहीं
    धरती पसीजी है कहीं !
    हर एक राही को भटकर ही दिशा मिलती रही।
    सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।    


भावार्थ : कवि गुप्त जी इन पंक्तियों में कहना चाह रहे हैं कि अपने भीतर की सत्यता का शोध स्वयं करना है अर्थात हमारी और हमसे जुड़े सभी तथ्यों की खोज हमें खुद ही करनी है । हमारी परिस्थितियों और जीवन की सत्यता का हमें कोई भी आभास नहीं कराएगा । दुख, त्रास, संघर्ष तथा विषमताओं के चलते जब भी आँखें द्रवित होगी, तब किसी की प्रतीक्षा किए बिना ही उस अश्रु धारा को हमें स्वयं ही पोंछना है । सुदूर आकाश (गगन) से हमें किसी सुख की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए । जिस धरती पर रह रहे हैं, वही धरा पीड़ा देख कहीं पसीजेगी । जीवन में जब तक राही अपने मार्ग की ठोकरों को आत्मसात नहीं करता, तब तक उसे मंजिल नहीं मिलती । कवि कहते हैं कि संसार में वास्तविक सच हम भी नहीं और तुम भी नहीं  हो ।    
 बेकार है मुस्कान से ढकना हृदय की खिन्नता ।
    आदर्श हों सकती नहीं, तन और मन की भिन्नता ।
    जब तक बंधी है चेतना 
    जब तक प्रणय दुख से घना
    तब तक न मानूँगा कभी, इस राह को ही मैं सही ।
सच हम नहीं सच तुम नहीं ।

 







भावार्थ : कवि गुप्त जी इन पंक्तियों में कहना चाह रहे हैं कि अपने हृदय की उदासी ( चिंता) को अपनी मुस्कान की ओट में ढकना उचित नहीं है क्योंकि मनुष्य के तन और मन की भिन्नता (अंतर, भेद, अलगाव) किसी के जीवन का आदर्श नहीं बन सकती । कवि कहते है कि जब तक जीवन है और जब तक इस जीवन में प्रणय (प्यार) दुख से घना (ज्यादा) है, तब तक मैं इस राह (मार्ग) को सही नहीं मानूँगा । कवि कहते हैं कि संसार में वास्तविक सच हम भी नहीं और तुम भी नहीं हो ।   

मनुष्यता - मैथिलीशरण गुप्त

    मनुष्यता                                               -  मैथिलीशरण गुप्त  विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो...