Friday, December 13, 2019

मैं नदी हूँ ...!






मैं नदी हूँ
हाँ, मैं नदी हूँ,
पल-पल,
कल्लोल करने वाली
नदी हूँ ,
मेरा रूप,
मेरा सौंदर्य,
मेरी चंचलता ...?
आज मात्र प्रश्न चिह्न बने
बस मुझे यही सवाल करते हैं,
स्वार्थी मानव को
क्या नहीं जरा भी ज्ञान ?
नित अपने ही हाथों
कर रहा है स्वयं का विनाश !
तरसेगा जब बूंद-बूंद
हाँ, तरसेगा जब ये बूंद-बूंद को
तब अपनी करनी पर
होगा बड़ा पछतावा इसे,             

तब इसे महत्त्व मेरा
समझ में आएगा,
मैं नदी हूँ,
हाँ, मैं नदी हूँ,

इसके दुष्कर्मों और
अनैतिक भावनाओं ने
कितना दूषित मुझे बना दिया,
पवित्र निर्मल मेरे जल को
कज्ज्लित इसने बना दिया
भरता है दंभ
अपने कौशल और विवेक का                 
इठलाता और बलखाता है
अपनी समृद्धि और नित उत्थान पर           

सब धरा रह जाएगा  
जब मेरा अस्तित्व ही मिट जाएगा,
मैं नदी हूँ,
हाँ, मैं नदी हूँ,



* कल्लोल - जल की ऊँची आवाज करने वाली लहर,
  दंभ – घमंड
  कज्ज्लित – कालिख पुता हुआ

मनुष्यता - मैथिलीशरण गुप्त

    मनुष्यता                                               -  मैथिलीशरण गुप्त  विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो...