Saturday, July 24, 2021

मनुष्यता - मैथिलीशरण गुप्त

  मनुष्यता 

                                    - मैथिलीशरण गुप्त 

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।

हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[मर्त्य-मरणशील, सुमृत्यु - अच्छी मृत्यु,  वृथा - बेकार, पशु प्रवृत्ति - पशु जैसा स्वभाव ]

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

[उदार- दानशील, सरस्वती - विद्या की देवी,  कृतार्थ - आभारी, धरा - पृथ्वी, कीर्ति-यश, कूजती-फैलती, सृष्टि- विश्व, अखंड - अविभाजित, असीम- असीमित, जिसकी कोई सीमा न हो ]

क्षुधार्थ रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[क्षुधार्थ- भूख से पीड़ित, करस्थ - हाथ में स्थित,  परार्थ - दूसरों के लिए, अस्थिजाल - हड्डियों का समूह, उशीनर-गांधार देश का राजा, स्वमांस-अपने शरीर का मांस, चर्म- चमड़ा, अनित्य - जो सदा नहीं रहती, नाशवान,  देह - शरीर, जीव-आत्मा, अनादि-अविनाशी ]


सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ सहानुभूति - सद्भावना, महानुभूति- बड़ी भारी पूँजी, वशीकृता - वश में की हुई, मही-धरती, प्रवाह-धारा, विनीत- नम्र, लोक वर्ग - जनता, विरुद्धवाद-विरोधी परंपरा ] 

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में|
अनाथ कौन हैं यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं|
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ मदांध - अभिमान, वित्त - धन,  पूँजी, सनाथ - जिसका स्वामी है, गर्व - अभिमान, अनाथ -जिसका कोई न हो, विशाल - बड़ा , त्रिलोकनाथ - ईश्वर ]

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ अनंत देव  - ईश्वर, भगवान, समक्ष - सामने, स्वबाहु  - अपने हाथ, परस्परालंब -एक दूसरे का सहारा, अमर्त्य -भगवान, देवता, अंक - गोद, अपंक - कलंक रहित ]

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ बंधु - भाई, दोस्त, विवेक - ज्ञान, स्वयंभू - भगवान, अंतरैक्य - आत्मा की एकता , अनर्थ  -बुरा, प्रमाणभूत  - साक्षी, गवाह, व्यथा - दर्द, पीड़ा ]

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

[ अभीष्ट - इच्छित, अतर्क - वाद-विवाद से परे, हेलमेल - मेल-जोल, पंथ-रास्ता  ]

 

मनुष्यता - मैथिलीशरण गुप्त

    मनुष्यता                                               -  मैथिलीशरण गुप्त  विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो...