मैं नदी हूँ
हाँ, मैं नदी हूँ,
पल-पल,
कल्लोल करने वाली
नदी हूँ ,
मेरा रूप,
मेरा सौंदर्य,
मेरी चंचलता ...?
आज मात्र प्रश्न चिह्न बने
बस मुझे यही सवाल करते हैं,
स्वार्थी मानव को
क्या नहीं जरा भी ज्ञान ?
नित अपने ही हाथों
कर रहा है स्वयं का विनाश !
तरसेगा जब बूंद-बूंद
हाँ, तरसेगा जब ये बूंद-बूंद
को
तब अपनी करनी पर
होगा बड़ा पछतावा इसे,
तब इसे महत्त्व मेरा
समझ में आएगा,
मैं नदी हूँ,
हाँ, मैं नदी हूँ,
इसके दुष्कर्मों और
अनैतिक भावनाओं ने
कितना दूषित मुझे बना दिया,
पवित्र निर्मल मेरे जल को
कज्ज्लित इसने बना दिया
भरता है दंभ
अपने कौशल और विवेक का
इठलाता और बलखाता है
अपनी समृद्धि और नित उत्थान
पर
सब धरा रह जाएगा
जब मेरा अस्तित्व ही मिट
जाएगा,
मैं नदी हूँ,
हाँ, मैं नदी हूँ,
* कल्लोल - जल की ऊँची आवाज करने वाली लहर,
दंभ –
घमंड
कज्ज्लित – कालिख पुता हुआ
Ji bilkul sahi h hum khud hi विनाश कर Rahay h Aachi soch h पूजा ji aap ki thnxs
ReplyDeletethank you
Deleteबहुत असरदार रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद हेमंत जी .
DeleteVery nice line 💞
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteनदी के अस्तित्व को बचाने के लिए एक असरदार कविता. बहुत खूब.
ReplyDeletethank you सरिता
DeleteVery true .... excellent!!!
ReplyDeletethank you
DeleteVery nice������
ReplyDeletethank you
DeleteTop class poem.
ReplyDeletethank you
Deletethank you
ReplyDeletethank you
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